उनकी दशा इस समय उस आदमी की-सी थी, जो अपने मुँह-जोर घोड़े के भाग जाने पर खुश हो। अब हव्यिों के टूटने का भय तो नहीं रहा। मैं घाटे में नहीं हूँ। अब रूठी रानी भी प्रसन्न हो जाएँगी। इंदु से कहूँगा, मैंने ही मिस्टर क्लार्क से अपना फैसला मंसूख करने के लिए कहा है।
वह कई दिन से इंदु से मिलने न गए थे। अंदर जाते हुए डरते थे कि इंदु के तानों का क्या जवाब दूँगा। इंदु भी इस भय से उनके पास न आती थी कि कहीं फिर मेरे मुँह से कोई अप्रिय शब्द न निकल जाए। प्रत्येक दाम्पत्य-कलह के पश्चात् जब वह उसके कारणों पर शांत हृदय से विचार करती थी, तो उसे ज्ञात होता था कि मैं ही अपराधिन हूँ, और अपने दुराग्रह पर उसे हार्दिक दु:ख होता था। उसकी माता ने बाल्यावस्था ही से पातिव्रत्य का बड़ा ऊँचा आदर्श उसके सम्मुख रहा था। उस आदर्श से गिरने पर वह मन-ही-मन कुढ़ती और अपने को धिक्कारती थी-मेरा धर्म उनकी आज्ञा का पालन करना है। मुझे तन-मन से उनकी सेवा करनी चाहिए। मेरा सबसे पहला कर्तव्य उनके प्रति है, देश और जाति का स्थान गौण है; पर मेरा दुर्भाग्य बार-बार मुझे कर्तव्य-मार्ग से विचलित कर देता है। मैं इस अंधो के पीछे बरबस उनसे उलझ पड़ी। वह विद्वान हैं, विचारशील हैं। यह मेरी धृष्टता है कि मैं उनकी अगुआई करने का दावा करती हूँ। जब मैं छोटी-छोटी बातों में मानापमान का विचार करती हूँ, तो उनसे कैसे आशा करूँ कि वह प्रत्येक विषय में निष्पक्ष हो जाएँ।
कई दिन तक मन में यह खिचड़ी पकाते रहने के कारण उसे सूरदास से चिढ़ हो गई। सोचा-इसी अभागे के कारण मैं यह मनस्ताप भोग रही हूँ। इसी ने यह मनोमालिन्य पैदा कराया है। आखिर उस जमीन से मुहल्लेवालों ही का निस्तार होता है न, तो जब उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, तो अंधो की क्यों नानी मरती है! किसी की जमीन पर कोई जबरदस्ती क्यों अधिकार करे, यह ढकोसला है, और कुछ नहीं। निर्बल जन आदिकाल से ही सताये जाते हैं और सताये जाते रहेंगे। जब यह व्यापक नियम है, तो क्या एक कम, क्या एक ज्यादा।
इन्हीं दिनों सूरदास ने राजा साहब को शहर में बदनाम करना शुरू किया, तो उसके ममत्व का पलड़ा बड़ी तेजी से दूसरी ओर झुका। उसे सूरदास के नाम से चिढ़ हो गई-यह टके का आदमी और इसका इतना साहस कि हम लोगों के सिर चढ़े। अगर साम्यवाद का यही अर्थ है, तो ईश्वर हमें इससे बचाए। यह दिनों का फेर है, नहीं तो इसकी क्या मजाल थी कि हमारे ऊपर छींटे उड़ाता।
इंदु दीन जनों पर दया कर सकती थी-दया में प्रभुत्व का भाव अंतर्हित है-न्याय न कर सकती थी, न्याय की भित्ति साम्य पर है। सोचती-यह उस बदमाश को पुलिस के हवाले क्यों नहीं कर देते? मुझसे तो यह अपमान न सहा जाता। परिणाम कुछ होता, पर इस समय तो इस बुरी तरह पेश आती कि देखनेवालों के रोयें खड़े हो जाते।
वह इन्हीं कुत्सित विचारों में पड़ी हुई थी कि सोफ़िया ने जाकर उसके सामने राजा साहब पर सूरदास के साथ अन्याय करने का अपराध लगाया, खुली हुई धमकी दे गई। इंदु को इतना क्रोध आया कि सूरदास को पाती, तो उसका मुँह नोच लेती। सोफ़िया के जाने के बाद वह क्रोध में भरी हुई राजा साहब से मिलने आई; पर बाहर मालूम हुआ कि वह कुछ दिन के लिए इलाके पर गए हुए हैं। ये दिन उसने बड़ी बेचैनी में काटे। अफसोस हुआ कि गए और मुझसे पूछा भी नहीं!
राजा साहब जब इलाके से लौटे, तो उन्हें मि. क्लार्क का परवाना मिला। वह उस पर विचार कर रहे थे कि इंदु उनके पास आई और बोली-इलाके पर गए और मुझे खबर तक न हुई, मानो मैं घर में हूँ ही नहीं।
राजा ने लज्जित होकर कहा-ऐसा ही एक जरूरी काम था। एक दिन की भी देर हो जाती, तो इलाके में फौजदारी हो जाती। मुझे अब अनुभव हो रहा है कि ताल्लुकेदारों के अपने इलाके पर न रहने से प्रजा को कितना कष्ट होता है।
'इलाके में रहते, तो कम-से-कम इतनी बदनामी तो न होती।'
'अच्छा, तुम्हें भी मालूम हो गया। तुम्हारा कहना न मानने में मुझसे बड़ी भूल हुई। इस अंधो ने ऐसी विपत्ति में डाल दिया कि कुछ करते-धरते नहीं बनता। सारे शहर में बदनाम कर रहा है। न जाने शहरवालों को इससे इतनी सहानुभूति कैसे हो गई। मुझे इसकी जरा भी आशंका न थी कि शहरवालों को मेरे विरुध्द खड़ा कर देगा।'
'मैंने तो जब से सुना है कि अंधा तुम्हें बदनाम कर रहा है, तब से ऐसा क्रोध आ रहा है कि वश चले, तो उसे जीता चुनवा दूँ।
राजा साहब ने प्रसन्न होकर कहा-तो हम दोनों घूम-घामकर एक ही लक्ष्य पर आ पहुँचे।
'इस दुष्ट को ऐसा दंड देना चाहिए कि उम्र-भर याद रहे।'
'मिस्टर क्लार्क ने इसका फैसला खुद ही कर दिया। सूरदास की जमीन वापस कर दी गई।'
इंदु को ऐसा मालूम हुआ कि जमीन धँस रही है और मैं उसमें समाई जा रही हूँ। वह दीवार न थाम लेती, तो जरूर गिर पड़ती-सोफ़िया ने मुझे यों नीचा दिखाया है। मेरे साथ वह कूटनीति चली है। हमारी मर्यादा को धूल में मिलाना चाहती है। चाहती है कि मैं उसके कदम चूमूँ। कदापि नहीं।
उसने राजा साहब से कहा-अब आप क्या करेंगे?
'कुछ नहीं, करना क्या है। सच पूछो, तो मुझे इसका जरा भी दु:ख नहीं है। मेरा तो गला छूट गया।'
'और हेठी कितनी हुई!'
'हेठी जरूर हुई; पर इस बदनामी से अच्छी है।'
इंदु का मुख-मंडल गर्व से तमतमा उठा। बोली-यह बात आपके मुँह से शोभा नहीं देती। यह नेकनामी-बदनामी का प्रश्न नहीं है, अपनी मर्यादा-रक्षा का प्रश्न है। आपकी कुल-मर्यादा पर आघात हुआ है, उसकी रक्षा करना आपका परम धर्म है, चाहे उसके लिए न्याय के सिध्दांतों की बलि ही क्यों न देनी पड़े। मि. क्लार्क की हस्ती ही क्या है, मैं किसी सम्राट् के हाथों भी अपनी मर्यादा की हत्या न होने दूँगी, चाहे इसके लिए मुझे अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि प्राण भी देना पड़े। आप तुरंत गवर्नर को मि. क्लार्क के न्याय-विरुध्द हस्तक्षेप की सूचना दीजिए। हमारे पूर्वजों ने अंगरेजों की उस समय प्राण-रक्षा की थी, जब उनकी जानों के लाले पड़े हुए थे। सरकार उन एहसानों को मिटा नहीं सकती। नहीं, आप स्वयं जाकर गवर्नर से मिलिए, उनसे कहिए कि मि. क्लार्क के हस्तक्षेप से मेरा अपमान होगा, मैं जनता की दृष्टि में गिर जाऊँगा और शिक्षित-वर्ग को सरकार में लेश-मात्र विश्वास न रहेगा। साबित कर दीजिए कि किसी रईस का अपमान करना दिल्लगी नहीं है।
राजा साहब ने चिंतित स्वर में कहा-मि. क्लार्क से सदा के लिए विरोध हो जाएगा। मुझे आशा नहीं है कि उनके मुकाबले में गवर्नर मेरा पक्ष ले। तुम इन लोगों को जानती नहीं हो। इनकी अफसरी-मातहती दिखाने-भर की है, वास्तव में सब एक हैं। एक जो करता है, सब उसका समर्थन करते हैं। व्यर्थ की हैरानी होगी।